दलित शोषित वर्ग के सामाजिक उत्थान के सिद्धांतों पर चलकर प्रदेश की सत्ता तक पहुंच चुकी बहुजन समाज पार्टी के 30 साल के कालखंड में कई उतार चढ़ाव आए। 20 साल पहले घूरपुर के दौना कांड ने पार्टी में ऐसी जान फूंकी कि अनुसूचित जाति इसकी ग्रास वोटर बन गई। और फिर जब-जब पार्टी से टूटकर नेताओं ने दूसरे राजनीतिक दल का दामन थामा तब-तब उन्हीं अनुसूचित जाति के मतदाताओं ने अपनी आला नेता के पक्ष में खड़े होकर जीत भी दिलाई। इसी का परिणाम था कि 2007 में दलित-ब्राह्मण गठजोड़ करते हुए मायावती ने पूर्ण बहुमत से भी सरकार बनाई थी लेकिन राजधानी लखनऊ में स्मारक व पत्थर के हाथियों ने अगले ही चुनाव में भारी नुकसान पहुंचाया।

अत्याचार नहीं हुआ बर्दाश्त

1993 के विधानसभा चुनाव में मेजा, करछना, बारा, प्रतापपुर, हंडिया, सोरांव, नवाबगंज सीट पर बसपा का जबर्दस्त प्रदर्शन हुआ। उस वर्ष बसपा का साथ पाकर मुलायम सिंह ने सरकार बनाई थी तो बसपा संस्थापक कांशीराम से तय हुआ था कि अनुसूचित जाति के लोगों की सामाजिक सुरक्षा होगी। लेकिन परिणाम इस सहमति से उलट आने लगे। इस पर अनुसूचित जाति के लोग बसपा के पक्ष में खुलकर आने लगे। परिणाम रहा कि 1996 में इसी ताकत के बलबूते मायावती ने भाजपा के समर्थन से प्रदेश में सरकार बना ली और उनके कार्यकाल में कानून व्यवस्था में सुधार आया।

दौना कांड और राजूपाल हत्याकांड ने दिलाई बढ़त

घूरपुर के दौना गांव में अनुसूचित जाति की एक महिला को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाए जाने और 25 जून 2005 को शहर पश्चिमी के बसपा विधायक राजू पाल की सरेआम हत्या ने जनता को इतना आक्रोशित किया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को 2007 के विधानसभा चुनाव में सत्ता गंवानी पड़ी और अनुसूचित जाति ही नहीं, ब्राह्मणों ने भी ताकत लगाकर प्रदेश में मायावती को पूर्ण बहुमत से सत्ता दिलाई।