ऐसा लगने लगा है कि अखिलेश यादव 2024 के रण में यूपी में बीजेपी से अकेले ही मुकाबिल होंगे। पता नहीं क्‍या बात है कि समाजवादी पार्टी का कोई भी गठबंधन टिक नहीं पा रहा है। यूपी विधानसभा चुनाव 2022 और उसके बाद आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव में समाजवादी पार्टी की हार के बाद से अखिलेश यादव का छोटे दलों को साथ ले बड़ी लड़ाई लड़ने का प्रयोग भी असफल होता नज़र आ रहा है।

अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के साथ जोड़ी बनाई थी लेकिन ये जोड़ी फ्लॉप हो गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती को 26 साल बाद सपा-बसपा गठबंधन के लिए राजी कर उन्‍होंने यूपी की राजनीति में हलचल मचा दी थी लेकिन इस बार जातीय ध्रुवीकरण का ये दांव भी फेल रहा। 2022 के चुनाव में उन्‍होंने जयंत चौधरी की रालोद, ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा और केशव देव मौर्य की महान दल जैसी छोटी-छोटी पार्टियों को साथ लाकर एक नया गठबंधन तैयार किया लेकिन बीजेपी की प्रचंड लहर के सामने यह भी बिखर गया।

अखिलेश यादव के विरोधियों का कहना है कि 2017, 2019 और 2022 के चुनावों की गलतियों से वह कोई सबक नहीं ले रहे हैं इसीलिए चाचा शिवपाल हों या ओमप्रकाश राजभर एक-एक कर उनके गठबंधन के साथी बिखरते जा रहे हैं। दूसरी ओर बीजेपी निषाद पार्टी के अध्‍यक्ष संजय निषाद, अपना दल की अनुप्रिया पटेल और ऐसी तमाम छोटी-बड़ी राजनीतिक शक्तियों को अपने झंडे तले एकजुट रखने में अभी तक कामयाब रही है।

यूपी में 2024 के महामुकाबले के लिए एनडीए के इन घटक दलों ने पीएम मोदी, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा अध्‍यक्ष जेपी नड्डा और सीएम योगी आदित्‍यनाथ के मार्गदर्शन में अभी से अपने-अपने दांव चलने शुरू कर दिए हैं। दूसरी तरफ अखिलेश की राजनीतिक मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। जमानत पर जेल से बाहर आने के बाद आजम खान भी अखिलेश को कोई राह दिखाने की बजाए अपनी ही दिक्‍कतों में उलझे और उन दिक्‍कतों के लिए अखिलेश को जिम्‍मेदार मानते हुए उन पर तंज कसते नजर आते हतैं।

रामपुर और आजमगढ़ की हार के बाद अखिलेश यादव ने पार्टी की ओवरहालिंग शुरू की है लेकिन फिलहाल इसका कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा है। उल्‍टे चाचा शिवपाल यादव और ओमप्रकाश राजभर से दूरियों का समाजवादी पार्टी को नुकसान साफ दिख रहा है। केशव देव मौर्य भी सपा से कट्टी कर चुके हैं। कुल मिलाकर अखिलेश के सारे प्रयोग एक-एक कर फेल होते नज़र आ रहे हैं।

राजनीतिक विश्‍लेषक तो यहां तक कहने लगे हैं कि सपा की राजनीति चरमरा रही है। यूपी सियासत में अब उसके पास कोई समीकरण नहीं बचा है। अखिलेश ने पार्टी इकाइयों को भंग करके खुद को ऐक्‍शन मोड में दिखाने की कोशिश जरूर की है लेकिन सपा के लिए नई सम्‍भावनाओं पर काम करते नजर नहीं आ रहे हैं। आगे का रास्‍ता क्‍या होगा, 2024 में बीजेपी का मुकाबला कैसे करेंगे इसकी कोई रणनीति फिलहाल नहीं दिखती है।

मुस्लिम वोट बैंक में क्‍यों हुआ बिखराव

उधर, एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी और समाजवादी पार्टी के ही आजम खान जैसे कद्दावर मुस्लिम नेताओं ने पिछले कुछ समय से अखिलेश यादव की सियासत को जिस तरह निशाने पर रखा उससे मुस्लिम वोट बैंक में भी एक तरह का बिखराव नज़र आया। हाल में आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव अखिलेश यादव ने यादव मतदाताओं के छिटकने के डर से मुस्लिम प्रत्‍याशी उतारने से परहेज किया। शायद इसके पीछे यह सोच थी कि यदि प्रत्‍याशी मैदान में उतरा तो मुस्लिम मतदाता मजबूरन सपा के साथ खड़ा होगा क्‍योंकि बीजेपी को अकेले सपा ही चुनौती दे सकती है लेकिन बसपा के दांव ने सपा की इस सोच को गलत साबित कर दिया। बसपा ने वहां से गुड्डू जमाली को उतार दिया। सपा की हार में इसे महत्‍वपूर्ण फैक्‍टर बताया जा रहा है।