लोकसभा चुनाव के लिए अब सवा साल का ही वक्त बचा है और भाजपा से लेकर तमाम दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। इसका सबसे ज्यादा माहौल यूपी और बिहार जैसे राज्यों में ही बनता दिख रहा है, जहां से लोकसभा की कुल 120 सीटें आती हैं। फिलहाल यूपी की बात करें तो यहां भले ही 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश और जयंत को हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन दोनों नेता नई रणनीति के साथ फिर से मैदान में उतरने की तैयारी में है। दरअसल अखिलेश और जयंत दोनों की ही कोशिश है कि अपने परंपरागत जनाधार के अलावा नए वर्गों को भी जोड़ा जा सके। इस रणनीति में भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर की भूमिका भी अहम हो सकती है, जिन्होंने साथ आने के संकेत दिए हैं।

हाल ही में राष्ट्रीय लोक दल के दोबारा अध्यक्ष चुने गए जयंत सिंह ने पश्चिम यूपी के 1500 गांवों में सभाएं करने का फैसला लिया है। यह बैठकें उन गांवों में होंगी, जो जाट बहुल नहीं हैं। यानी जाटों के अलावा अन्य वर्गों को भी जोड़ने की तैयारी है। पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि 2022 में पार्टी को जाट और मुस्लिमों के अलावा अन्य वर्गों का ज्यादा वोट नहीं मिला। यही वजह थी कि नतीजा उम्मीद से काफी कमजोर रहा। अब इसी की काट के लिए गैर-जाट बहुल गांवों में संपर्क बनाने और हर वर्ग को साथ लाने की कोशिश होगी। खासतौर पर सैनी, गुर्जर, यादव, त्यागी और ब्राह्मण समुदाय के लोगों को पार्टी लुभाना चाहती है। मुस्लिम और जाटों को वह काफी हद तक अपने पाले में मान रही है।

इस रणनीति में आजाद समाज पार्टी बनाकर राजनीति में उतरे चंद्रशेखर का रोल भी अहम है। वह सहारनपुर, बिजनौर, मुजफ्फरनगर और मेरठ जैसे इलाकों में प्रभाव रखते हैं। इसके अलावा पूरे सूबे में पिछड़े और दलितों की एकता का संदेश भी उनके साथ गठबंधन करके देने की कोशिश होगी। इसके अलावा अखिलेश यादव ने पूर्वांचल, अवध, रुहेलखंड और बुंदेलखंड पर फोकस किया है। यहां वह गैर-यादव समुदायों को साथ लाने की कोशिश में हैं। हाल ही में घोषित सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्वामी प्रसाद मौर्य, रामजी लाल सुमन और रामअचल राजभर जैसे नेताओं को उन्होंने तवज्जो दी है।

साफ है कि अखिलेश यादव गैर-यादव ओबीसी बिरादरियों को भी साथ लाकर एक गुलदस्ता बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य के बयानों पर वह कोई रिएक्शन देने की बजाय संतुलित हैं और उलटे सरकार से सवाल दाग रहे हैं। इसके अलावा बीते कुछ महीनों से लगातार ओबीसी वर्ग की मांगों को उठा रहे हैं। यही नहीं लोहियावादी और आंबेडकरवादियों को साथ लाने की बात करके ओबीसी-दलित एकता बनाने के प्रयास में हैं। दरअसल भाजपा की जीत की बड़ी वजह ही गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों का समर्थन माना जाता रहा है। पर इस बार अखिलेश और जयंत को इस समीकरण के अंत की उम्मीद है।