शकुंतला की कहानी महाभारत के आदिपर्व से लेकर पद्मपुराण और कालिदास की लिखी महान रचना ‘अभिज्ञान शांकुतलम्’ तक में बिखरी हुई है। शकुंतला यानी शंकुतों (पक्षियों) की पाली हुई। हर रचयिता ने शकुंतला के चरित्र को अपने अनुसार गढ़ा है। दुष्यंत की याददाश्त खोने का बहाना भी कहीं कहीं दुर्वासा ऋषि बनते हैं लेकिन है ये कहानी एक ऐसी बच्ची की जिसके माता पिता ने उसे जन्मते ही त्याग दिया। और, जिसके पालनहार को उसे सगी बेटी से भी ज्यादा प्यार है। प्रेम प्रकटन के पलों में गर्भवती हुई शकुंतला की अपने पति से न्याय मांगने की भी ये कहानी है। ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका के प्रेम प्रसंग से जन्मी शकुंतला के दो रूप है, एक श्रृंगार रस का भौतिक दर्शन कराती शकुंतला और एक वह शकुंतला जिसे अपना स्वाभिमान वापस पाना है।

भरत की मां शकुंतला की कहानी
फिल्म ‘शाकुंतलम’ इसके मुख्य चरित्र यानी शकुंतला के जन्म से शुरू होती है। समय बीतता है और युवती शकुंतला और हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत का आमना सामना होता है। शकुंतला के अभिभावक कण्व ऋषि के आश्रम में न होने पर दोनों का सीधा परिचय होता है। दोनों को प्रेम होता है। दोनों गंधर्व विवाह करते हैं। और शकुंतला गर्भवती हो जाती है। अंतरंग क्षणों के अतिरेक में दिया हुआ अपना वचन दुष्यंत भूल जाते हैं। शकुंतला को पहचानने से दुष्यंत मना कर देते हैं। दोनों के बीच का वचन यही है कि उनकी संतान ही हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठेगी। और, ये संतान हैं भरत, जिनके नाम पर भारत देश का नाम पड़ा।

सशक्त महिला की कमजोर कहानी
शकुंतला की कहानी अगर ध्यान से पढ़ें तो यहां भी अन्य पौराणिक वर्णनों की तरह इसके पुरुष पात्र दुष्यंत को ये कहानी लिखने वालों ने हर जगह निर्दोष साबित करने के लिए पहले से ही क्षेपक कथाएं गढ़ रखी हैं। लेकिन, इसके बावजूद पौराणिक कथाओं में महिला सशक्तिकरण की ये पहली ऐसी स्थापित कहानी है जिसमें एक महिला अपने रूप पर मोहित हुए राजा से अपने बेटे के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने का संकल्प लेती है। ये बात दीगर है कि मछुआरे को मिली अंगूठी के चलते कहानी सुखांत मोड़ पर आकर अपनी इति को प्राप्त होती है। लेकिन इस कहानी की अंतर्धारा को समझने में फिल्म ‘शाकुंतलम’ के लेखक, निर्देशक गुणशेखर विफल रहे। फिल्म की शीर्षक भूमिका के लिए सामंथा रुथ प्रभु का चयन भी बड़ी गलती है। सामंथा का डील डौल और शरीर सौष्ठव जंगलों में जन्मी एक ऋषि कन्या जैसा नहीं दिखता। सामंथा सुंदर तो हैं लेकिन सलज्ज स्त्री का रूप, सौंदर्य और श्रृंगार उनमें नहीं हैं। वह शकुंतला के चरित्र का मूल भाव प्रकट कर पाने में भी विफल हैं।
अल्लू अरहा का शानदार अभिनय
फिल्म ‘शाकुंतलम’ में दुष्यंत का चरित्र निभा रहे देव मोहन ने जरूर राजा दुष्यंत के तौर पर अपने चयन को सही साबित करने की पूरी कोशिश की है, लेकिन फिल्म का मुख्य ध्यान चूंकि शकुंतला पर ही है। दुष्यंत का चरित्र पटकथा की कमी के चलते ठीक से विकसित ही नहीं हो पाया है। दोनों मुख्य किरदारों की हिंदी डबिंग भी बहुत प्रभावी नहीं है। फिल्म का हिंदी भाषी क्षेत्रों से संबंध स्थापित करने के लिए हिंदी सिनेमा के कुछ चर्चित कलाकारों को भी फिल्म में लिया गया है लेकिन, प्रकाश राज को छोड़ इनमें से कोई भी असर नहीं छोड़ पाता है। हां, भरत का चरित्र निभा रहीं अभिनेता अल्लू अर्जुन की बेटी अल्लू अरहा का अभिनय कमाल है। उनका बाल सुलभ भोलापन और चेहरे पर एक नैसर्गिक तेज उनके चरित्र को शक्ति प्रदान करता है। फिल्म के क्लाइमेक्स में अल्लू अरहा ने जो काम किया है, वह दर्शकों का दिल जीत लेता है।
पौराणिक कथा पर बनी एक औसत फिल्म
तकनीकी तौर पर फिल्म ‘शाकुंतलम’ एक उम्दा फिल्म नहीं है। फिल्म को हिंदी में डब करके अगर रिलीज करना ही था तो इसमें कम से कम कुछ स्थापित कलाकारों की सेवाएं ली जानी चाहिए थीं। मूल भाषा में फिल्म के संगीत का असर जो भी रहा हो, हिंदी में डब होने वाली फिल्मों में संगीत देते रहे मणि शर्मा यहां फिल्म के भाव और इसके कथ्य में संगीत की महत्ता समझने में पूरी तरह विफल रहे हैं। फिल्म का काफी सारा हिस्सा स्टूडियो में हरे, नीले पर्दे लगाकर शूट किया गया है और इन परदों की जगह एडिटिंग के दौरान आभासी रूप से बने सेट डालकर फिल्म को पौराणिक स्वरूप प्रदान करने की कोशिशें भी कामयाब नहीं हो सकी हैं। फिल्म ‘शाकुंतलम’ एक ऐसी अधपकी फिल्म के रूप में दिखती है जिसकी रेसिपी तो इसके निर्देशक को पता थी लेकिन इसे बनाने में मसालों का संतुलित प्रयोग करना वह भूल गए।