उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है। सभी दल प्रत्याशियों की सूची तैयार करने में जुटे हैं और अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। इस बीच, एक आम वोटर से लेकर सियासी पंडितों तक एक सवाल जिसका जवाब हर कोई तलाश रहा है, वह है चुनावी अखाड़े से बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की सुप्रीमो मायावती का दूर रहना। यूपी में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं ‘बहन जी’ की ‘चुप्पी’ पर हैरानी के बीच कोरोना की वजह से चुनाव आयोग की ओर से रैलियों पर रोक ने बीएसपी की चुनौती को और बढ़ा दिया है। ऐसे में ये सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या बीएसपी के वोटर नया ठिकाना तलाशने को मजबूर होंगे? और यदि हां तो इसका फायदा किसे मिल सकता है?
लगातार कमजोर हो रही है पार्टी
बीएसपी की चुनौतियां नई नहीं हैं। 2012 में सत्ता से बाहर होने के बाद से पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है। 2007 में 206 सीटें जीतने वाली बीएसपी 2012 में 80 सीटें ही जीत पाई थी। तब वह दूसरे नंबर की पार्टी थी। लेकिन 2017 का विधानसभा चुनाव परिणाम तो पार्टी के लिए बेहद निराशाजनक रहा। भगवा लहर में पार्टी को महज 19 सीटों से संतोष करना पड़ा और यूपी में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन से चिंतित मायावती को 2019 के लोकसभा चुनाव में धुर विरोधी पार्टी सपा से गठबंधन को मजबूर होना पड़ा। गठबंधन के बावजूद सपा और बसपा यूपी में भगवा लहर का मुकाबला नहीं कर सकी। हालांकि, बसपा को कुछ लाभ जरूर हुआ, पार्टी 10 सीटें जीतने में कामयाब रही।
बड़े नेता छोड़ चुके हैं साथ
पार्टी के कमजोर होने के साथ नेताओं की वफादारी भी बदलती गई। 2017 में पार्टी के 19 विधायक लेकिन अब इनकी संख्या घटकर 3 ही रह गई है। जिन 16 विधायकों ने पार्टी का साथ छोड़ दिया है, उनमें से सुखदेव राजभर का 2021 में निधन हो गया, तो अन्य या तो सस्पेंड कर दिए गए या इस्तीफा देकर निकल गए। पार्टी के बड़े नेताओं में शामिल और पूर्व सांसद राकेश पांडे हाल ही में सपा में शामिल हो गए हैं।
बिखर रहा है पार्टी का वोट बैंक
दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम वोट साधकर सोशल इंजीनियरिंग करने वाली मयावती का वोटबैंक पिछले कुछ चुनाव में लगातार बिखर रहा है। पिछले कुछ चुनावों में यूपी में दलित वोटों खासकर जाटव वोट बिखरा है। बीजेपी के अच्छे प्रदर्शन के पीछे यह भी एक वजह माना जाता है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बीजेपी ने ग्रामीण और दलित वोटर्स के बीच अच्छी सेंध लगाई है, जिनपर कभी बीएसपी की मजबूत पकड़ थी। यूपी के वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा कहते हैं कि मायावती की कम सक्रियता से किसे अधिक फायदा होगा यह अभी ज्यादा साफ नहीं है। उम्मीदवारों के ऐलान के बाद अलग-अलग क्षेत्रों में इसके समीकरण बनेंगे। क्या बीएसपी के वोटरों में बिखराव होगा इसके जवाब में योगेश मिश्रा ने कहा, ”मायावती की राजनीति के केंद्र में दलित वोट रहा है और उनमें जाटव कट्टर वोटर माने जाते हैं। कहा जाता है कि जाटव सिर्फ हाथी देखते हैं। बीएसपी की जीत-हार की संभावना देखे बिना अधिकतर जाटव वोटरों के मायावती के साथ बने रहने की संभावना है। लेकिन गैर जाटव वोट जैसे खटीक, पासी, वाल्मीकि आदि का बिखराव जरूर हो सकता है।”
जिताऊ कॉम्बिनेशन का अभाव?
राजनीतिक जानकारों का यह भी कहना है कि मायवती की सफलता के पीछे एक अहम कारण सोशल इंजीनियरिंग की उनकी समझ है। ब्राह्मण और दलितों को साथ लाकर वह 2007 में वह पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचीं थीं। उनकी इसी इंजीनियरिंग पर सपा ने काफी हद तक इस बार चलने का प्रयास किया है। यूपी में विपक्षी दलों का दावा है कि ब्राह्मण योगी सरकार से नाराज हैं और इसलिए उन्हें अपने पाले में लाने के लिए कोशिशें हो रही हैं। सपा के साथ ही बीएसपी के लिए सतीश चंद्र मिश्रा इस काम को करने में जुटे हुए हैं। योगेश मिश्रा इस सवाल पर कहेत हैं, ”मायावती को जीतने के लिए कॉम्बिनेशन बनाना पड़ता है, लेकिन इस बार ऐसा होता नहीं दिख रहा है। पार्टी ब्राह्मणों के अलावा ओबीसी वोट बैंक को साधने की कोशिश में है, लेकिन ये दोनों ही वोट बीजेपी और सपा में पाले में भी जाएंगे।