देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं जो दिल दहला देने वाली हैं। शायद ही देश का कोई ऐसा राज्य हो जहां से अप्रिय खबरें न आ रही हों। फिर भी हाल में बंगाल बिहार राजस्थान और मणिपुर सबसे अधिक गलत कारणों से चर्चा में रहे। मणिपुर में जारी हिंसा ने समूचे राष्ट्र की पेशानी पर बल डाल दिए हैं।

आजकल निजी पारिवारिक जीवन और सार्वजनिक सामाजिक जीवन के तेजी से बदलते परिवेश में बड़ी भयावह घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। ऐसे घटनाक्रम मनुष्य होने के मूल भाव को ही तिरस्कृत तथा अपमानित करने वाले हैं। पिछले दिनों में प्रेमियों का लिव-इन में रहना और फिर उसी प्रियजन की बर्बर हत्याओं की घटनाएं देश के कई कोनों से आईं। ऐसे ही पत्नी द्वारा प्रेमी की सहायता से पति की जान लेने जैसी भयानक वारदात की खबरें भी आती रहती हैं।

कई मामलों में यह उलटा भी होता है और पीड़ित पत्नी या प्रेमिका होती है, जहां पति या प्रेमी कोई जघन्य वारदात को अंजाम देता है। दुष्कर्म में व्यक्ति और समूह के स्तर पर लिप्त होने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। ये सभी स्वार्थ के लिए रिश्तों की गहराती टूटन और आपसी भरोसे को कलंकित करने वाली घटनाएं हैं। चिंता की बात यह है कि ऐसी घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। वे बार-बार और जगह-जगह हो रही हैं। इससे हमारा सामाजिक तानाबाना बिगड़ रहा है। उसमें गांठें पड़ रही हैं।

कुछ ऐसी ही स्थिति देश के सार्वजनिक जीवन में भी घटित होती दिख रही है। देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं जो दिल दहला देने वाली हैं। शायद ही देश का कोई ऐसा राज्य हो जहां से अप्रिय खबरें न आ रही हों। फिर भी, हाल में बंगाल, बिहार, राजस्थान और मणिपुर सबसे अधिक गलत कारणों से चर्चा में रहे। मणिपुर में जारी हिंसा ने समूचे राष्ट्र की पेशानी पर बल डाल दिए हैं। वहां महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार ने देश की छवि को पूरी दुनिया में कलंकित करने का काम किया है।

कला एवं सांस्कृतिक विरासत से समृद्ध मणिपुर का घटनाक्रम समाज और सरकार दोनों में गहराई से पैठ कर चुकी जड़ता, अविश्वास और घोर निष्क्रियता को ही उजागर कर रहा है। राज्य का परिदृश्य यही संकेत करता है कि यहां कानून एवं व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। आम जन भय और दहशत के साये में जीने को विवश हैं।

मणिपुर में मैतेयी और कुकी दोनों समुदायों की अस्मिता एवं उससे जुड़े हितों को न समझना और उनकी उपेक्षा करना खतरनाक साबित हुआ। मनुष्य अब अधिकाधिक अस्मिताजीवी होता जा रहा है। एक जैसी अस्मिताएं यदि आपस में जोड़ती हैं तो दूसरे समुदायों से तोड़ती भी हैं। हम अपने समुदाय को श्रेष्ठ और दूसरे को खराब साबित करने में जुट जाते हैं। इस दौड़ के अगले पड़ाव में दोनों अस्मिताओं वाले लोग एक दूसरे के दुश्मन होने लगते हैं। वे उनसे बड़ी अस्मिताओं जैसे मनुष्य होना या भारतीय होने को भूलने लगते हैं।

बड़ी अस्मिताओं के साथ जुड़ना और अपने को पहचानना साझेदारी पर टिका होता है और उनमें परस्पर निर्भरता और पूरकता का रिश्ता होता है। वहीं, अलग और खास होती अस्मिताएं तकरार का कारण बनती हैं। अंतरराष्ट्रीय सीमा एवं म्यांमार से निकटता के कारण मणिपुर का मुद्दा और जटिल हो जाता है। इसलिए मणिपुर की समस्या को वहां के भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ में समझना होगा। साथ ही इस पूरे घटनाक्रम का राजनीतिक संदर्भ देखना भी जरूरी होगा।

हम इस उभरते माहौल को अनदेखा नहीं कर सकते जो विभिन्न प्रदेशों में दिख रहा है, जिसमें संवाद की जगह हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है। दुर्भाग्य यह है कि अब हिंसा का राजनीतिक इस्तेमाल नैतिकता की हदें पार करता जा रहा है। स्थिति के प्रति उदासीन नेता उसका लाभ उठाने से भी नहीं चूकते। मणिपुर के मामले की गूंज संसद में कैसे गूंजे और उस गूंज का श्रेय कैसे लिया जाए अब यही मुख्य राजनीतिक प्रश्न बन गया है।

पीड़ितों-प्रभावितों के दुख-दर्द, पीड़ा और मुश्किलों को कैसे कम किया जाए, सामान्य जनजीवन कैसे बहाल हो और लोग इधर-उधर शिविरों को छोड़ अपने-अपने घरों में वापस लौट आएं, ये सभी प्रश्न गौण हो चले हैं। राजनीतिक रणनीतिकारों का सरोकार अगले चुनाव के लिए सिर्फ वोट बटोरने तक सीमित होता है।

राजनीतिक बिरादरी संसदीय दायित्वों से पल्ला झाड़ रही है। वहां सार्थक विमर्श के अलावा सब कुछ हो रहा है। पूरा मानसून सत्र अड़ियल रवैये से उपजे संसदीय गतिरोध की भेंट चढ़ता दिख रहा है। मणिपुर के घटनाक्रम की गंभीरता सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों खेमों के सांसदों ने स्वीकारी, लेकिन उस पर आवश्यक चर्चा के लिए दोनों खेमे सहमति के किसी बिंदु पर नहीं पहुंच सके। स्थिति यही है कि बातचीत से बात बनती नहीं दिख रही और वेबात की बात करने में अपनी चतुराई दिखाने में हम लोग आगे चल रहे हैं।

बात करने के लिए विपक्ष द्वारा जितना समय मांगा जा रहा था, उससे काफी ज्यादा समय बिना बात किए बिताया या कहें कि गंवाया जा चुका है। अब सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष नियमों और कायदे-कानूनों का सहारा लेकर अपनी-अपनी बढ़त सुनिश्चित करने की कोशिश में लगे हुए हैं। देश की सबसे बड़ी पंचायत में अब नाटकीयता और हंगामे का ही बोलबाला है। अभद्र भाषा के उपयोग से भी किसी को कोई गुरेज नहीं दिख रहा। संसद के कार्य की हानि के साथ जनता की गाढ़ी कमाई का करोड़ों रुपया इस पंचायती उपद्रव की भेंट चढ़ रहा है।

इन सबसे यही लगता है कि आर्थिक विकास और भौतिक सुख-सुविधाओं की बढ़त के साथ रिश्तों में सहिष्णुता, पारदर्शिता और भरोसे के स्तर पर जो परिपक्वता आनी चाहिए, वह नहीं आ पा रही है। हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी चुकती सी नजर आ रही है और हमारा मूल्यबोध धुंधला पड़ रहा है। देश ने अमृतकाल में आगे बढ़ने का बड़ा संकल्प लिया है और आर्थिक मोर्चे पर एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने को तैयार हो रहा है।

ऐसे में व्यक्तिगत और सामाजिक विकास की आंतरिक चुनौती हमें आचार और विचार दोनों ही दृष्टियों से आत्मावलोकन के लिए आवाज दे रही है। मनुष्यता, सामाजिकता और स्वतंत्रता के मूल्य हमसे कुछ दायित्वों की भी अपेक्षा करते हैं, जिनके अभाव में हम आगे कदम नहीं बढ़ा सकते। विचारों की लाचारी और आचार की मजबूरी के बीच हमें रास्ता ढूंढ़ना ही होगा।